कभी जब शून्यता महसूश करता मैं, शायद तुम भी विस्मृत सी हो जाती हो. याद करता फिर तुम्हारा वह चंचल-कोमल सा चेहरा , उस चेहरे की ताज़गी और आँखों की चमक. कुछ कहते से होंठ और उनकी थिरकन. सब देखता हूँ मैं पर सुन नहीं पाता , क्या कहती हैं वे.
उन जीवंत आँखों और होठों को, और चेहरे से सामंजस्य बैठाने की कोशिश में मैं भी करने लगता प्रयास; आँखों में चमक लाने का, चेहरे से ओज छलकाने का, और प्रतिउत्तर देता सा अपने शिथिल होठों को हिलाने का, पर डरता और लज्जित सा भी महसूस करता अंदर-ही-अंदर कि शायद तुम समझ रही हो यह सारा अभिनय. पर क्यों करता हूँ यह अभिनय? शायद इस लिए कि तुम्हारी अपेक्षाओं से दूर रह जाता हूँ मैं. पर फिर सोचता क्या हिमालय से निकली धारा उसका साथ कभी छोड़ पाती है? दूर-दूर, और दूर जा कर भी जुड़ी रहती है उसी दृढ़ता से, उसी चाहत से , उसी उत्साह और प्यार से. (जुलाई २०००)
No comments:
Post a Comment