Wednesday, November 13, 2019

किताब का नाम है; "ट्रेडिंग आर्मर विथ अ फ्लावर-राइज ऑफ़ न्यू मैस्कुलिन"

मनीष भाई ने एक जबरदस्त किताब लिखी है. किताब का नाम है; "ट्रेडिंग आर्मर विथ अ फ्लावर-राइज ऑफ़ न्यू मैस्कुलिन" . जाहिर है किताब का नाम अंग्रेजी में है तो किताब भी अंग्रेजी में ही है. और हम हैं कि इसकी 'समालोचना' लिख रहे हैं रिव्यु नहीं. हमने मास्टर्स की पढ़ाई साथ-साथ की थी सो थोड़ा सानिध्य प्राप्त हुआ इनका. इस व्यक्ति में जादू है. रितिक रोशन वाला नहीं। वह एलियन है भाई, यह इंसान अपने आप में एक पूरा रंगमंच हैं. दरअसल मनीष ने लिखी तो अपनी दीवानगी की कथा और व्यथा है जो मुकम्मल हुई है इस किताब में, परन्तु, अब यह पाठक पर है की वह इसे फिक्शन समझे या नॉन-फिक्शन. लेखक (या कवि ?) इस किस्म का कोई क्लेम नहीं करता. 


आगे बढ़ते हैं. राहत फतह अली साहब का एक गाना है, "ज़रूरी था". और ग़ज़ल की कुछ पक्तियां यूँ हैं. : 
"मिली हैं मंज़िलें फिर भी 
मुसाफिर थे मुसाफिर हैं 
तेरे दिल के निकाले हम 
कहाँ भटके कहाँ पहुंचे 
मगर भटके तो याद आया 
भटकना भी ज़रूरी था". 
कम शब्दों में अगर कहें तो इस किताब का मज़मून यह कुछ ग़ज़ल की पंक्तियाँ हैं जो ऊपर लिखी हैं. 

यह किताब एक सनातन दास्ताँ सी है जिसमे पात्र कालजयी है पर अदृश्य सा, उसकी कोई बड़ी या विस्तृत या विशेष पहचान भी नहीं है. पर इतना साफ़ है कि वह एक युवक है, पति और पिता भी, जो सामजिक संरचनाओं, व्यवस्थाओं, मान्यताओं, वैयक्तिक सम्वेदनाओं और अपनी बेचैनी का हल ढूंढता दीखता है. कहीं-कहीं एक अपराधी-बोध से ग्रस्त सा भी, वह भी खासतौर से जब वह, महज़ अपने पुरुष होने को, महिलाओं पर हो रहे वैश्विक दुराचारों का दोषी मान बैठता है. इसे आप जल्दबाज़ी में, महानता या मूढ़ता भी समझ सकते हैं. 
इस किताब को मैं कविता संग्रह के रूप में भी देखता हूँ. यहां आपका राबता  होगा अनेकों छोटी-बड़ी कविताओं से , कुछ खूबसूरत फूलों से भरे तो कुछ श्मशान से उद्विग्न कर देने वाले. पोएट मनीष  बेबाकी से अपनी बात कहता है, चाहे आप उसके पेज ७८ वाली कविता को इरोटिक या रोमांटिक कह लीजिये. मेरी राय है कि आप इस पुस्तक को सबसे पहले इस कविता से पढ़ना प्रारम्भ करें. शीर्षक है; "बटर फ्लाई टैटू ऑन योर लोअर बैक. " इसे आप चाहें तो कर्टेन रेज़र कह सकते हैं इस एकांकी जैसे कविता का. यहॉं मोनोलॉग करता हुआ कवि या बेहतर हो आप इसे कलाकार कह लें, आपसे रूबरू होता है पर वह आपसे  कोई आशना नहीं करता. कुछ एक कविताओं में दो पात्रों  के बीच संछिप्त सा संवाद होता जान पड़ता है पर यह पूरी यात्रा इस एक कलाकार के इर्द-गिर्द ही घूमती है. कोई कथानक भी नहीं है, न कोई क्रम्बद्धता, आप स्वतंत्र हैं इस पुस्तक को  कहीं से भी शुरू करने, विराम देने या ख़त्म करने के लिए. 
बाकी की कविताओं में आप डूबेंगे और पाएंगे एब्स्ट्रैक्ट संवेदनाओं में अकिञ्चित कल्पनाओं में , अनसुलझे जज़्बातों में , कुरेदते सच्चाइयों की ज़मीन तलाशते कलाकार को. 
कुछ, खुद को बेपर्दा करने की एक (ना)कामयाब कोशिश करते बेचैन कलाकार मनीष ने एक बात साफ़ कर दी है कि यह उनकी यात्रा-कथा है, आप दर्शक हैं और आप महसूस करेंगे जैसे आप कोई एकांकी नाटक देख रहे हों. काफी क्लैडेस्कोपिक सा व्यू तो कभी आप बिलकुल स्टेज पर होंगे पर अदृश्य. कारण ये सब हैं जिससे मैं इस पुस्तक तो एक एकांकी नाटक की तरह देख रहा हूँ. 
अमेज़ॉन से आज ही यह पुस्तक डिलीवर हुई और २-३ घंटे में मैं पढ़ गया. किताब छोटी है, सिर्फ १३६ पेज. आप इसे पढ़ें और मेरा मत है, आप इसे बिना ख़त्म किये नहीं छोड़ेंगे
मनीष भाई को ढेर सारी शुभकामनाएँ इस प्रथम पुस्तक के लिए. समय को छोटा भाई मिला है आज। ७ वर्षों की आपकी संचित संवेदनाओं से हमें रूबरू कराने के लिए साधुवाद. 
इस समालोचना पर आपकी प्रतिक्रिया का हमें बेसब्री से इंतज़ार रहेगा. 
सोनाली जी को प्रणाम और 'समय' को बहुत सारा प्यार.
आपका,
मृणाल 

Wednesday, June 26, 2019

क्या संतों, सन्यासियों पर प्रारब्ध लागू नहीं होता?

क्या संतों, सन्यासियों पर प्रारब्ध लागू नहीं होता?
ज्योतिर्विद और संतों को भी कहते सुना है कि , नक्षत्र, ग्रह और प्रारभ्ध उनसे परे रहता है. आप का क्या मत है? 
पर साधारण मनुष्य वही जीवन जीता है, जिसे, आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा था: "कर्म का भोग फिर भोग का कर्म". 

जब आपकी कुंडली में "डबल" दरिद्र योग हो, "भाग्यहीन योग" भी हो . ज्योतिषि भी जिन दुर्योगों से डरते हैं या फिर अपना धंधा चमकाते हैं , हम उन्हें अपनी आस्तीन और गले में लिए फिरते हैं. पर जीवन रोज़ अभिशप्त लगता है. लगता है, जीवन का सूत्र यही है: जेल, ज़मानत, बेल, परोल. पंक्चर बनाते ही ज़िन्दगी निकल जायेगी लगता है. कर्म और प्रारभ्द की सीमाएं हैं, पर जीवन का एक रहश्य है, जिसे कहते हैं, चमत्कार. अगर यह न हो तो फिर एडवेंचर नहीं हो.
मुझे ईश्वर का मतलब समझ में यूँ आता है; "जो है, और जिसने आपका प्रारब्ध लिख दिया एक उद्देश्य के लिए". सुख और दुःख उस रास्ते के पड़ाव हैं, कुछ सुहाने तो कुछ भयानक. कई रास्ते भयानक पड़ावों की श्रृंखला लगती है, जहाँ अनगिनत अवरोध हैं, तो कुछ रास्ते कोमल और लुभावने भी .
भाई, ज़िन्दगी एक काम है, जिसे करना है, कोई विकल्प नहीं है. ईश्वर की आपसे कोई दुश्मनी नहीं है, बस आप चुन लिए गए कुछ करने के लिए, आप कर लें तो ठीक है, वर्ना इस्तेमाल तो हो ही जाएँगे. काम पूरा होगा और तभी आपकी छुट्टी भी.
धर्मों में गुरु की अवधारणा सिर्फ इसी लिए है, कि रास्ते में कोई जीपीएस नहीं है, आपको हर असमंजस में किसी से रास्ता पूछना है. गुरु इतना ही है, अगर आपको गुरु का आशीर्वाद मिल गया तो समझ लीजिये , इंटरनल एग्जाम में पूरे नंबर मिल गए पर, अभी बाकी की परीक्षा लम्बी है.
हिम्मत रखिये, भरोसा रखिये, आपके पास तंग आकर तत्क्षण कोई गलत कदम उठाने की भी इच्छा हो सकती है, आप बिलकुल तैयार हो सकते हैं की अब प्रलय ही आ जाए. धरती फट जाए और आप सीता माँ की तरह उसमे समां जाएँ. पर ऐसा होगा नहीं। ग्रहों की चाल पल पल बदलती है; आपका भी मूड बदल जाएगा और आप नए सोच के साथ आगे बढ़ेंगे. आपको हर शर्त पर जीतना है.
जब जीवन का मतलब नहीं समझ आने लगे, बार-बार गहरे कष्टों से गुजरने लगें, तब लगता है कर्मा या प्रारब्ध भी कितनी गहरी व्यवस्था है.
अब एक ही कुंडली में, सूर्य , मंगल और बुध पराक्रम भाव में हों तो मतलब है आप किसी भी मुश्किल से निकल सकते हैं, बस ढृढ़ निश्चय कर लें. मैं निकलता रहा हूँ बार-बार और अब तो आदत सी हो गयी है.
मजेदार बात तो तब हो जाती है जब एक ही कुंडली में इतने सारे दुर्योग एक साथ उमड़ पड़ें -ग्रहण योग, केमद्रुम योग, श्रापित दोष, दृष्टि दोष  इत्यादि, भाग्य और कर्म का स्वामी नीच का होकर व्यय भाव में बैठा हो, लग्न का स्वामी भी नीच का हो नवमांस में. कोई भी ग्रह उच्च के न हों. सबसे शुभ ग्रह बृहस्पति रोग, ऋण , शत्रु के घर में बैठे हों. मंगल नीच का होकर अस्त भी हो. सारे अच्छे ग्रह  चर राशि में हों. चन्द्रमा पीड़ित हो, शुक्र के साथ केतु हो, फिर जी लो ज़िन्दगी सिमरन.
जब आप हार्ट अटैक तो नित आमंत्रित करते हों. जब आपका सारा विश्वास भगवान् और भक्ति से विरत होने लगे, जी लो ज़िन्दगी सिमरन.
कल ही एक ख़याल आया , अगर सारे कर्मा /प्रारब्ध इस शरीर से जुड़े हैं, तो इस शरीर को इसका रहने ही न दो, त्याग कर दो. ज़िन्दगी ख़त्म करने की बात नहीं कर रहा. इसका मतलब है, शरीर को दूसरों के लिए लगा दो. अपना कुछ न रहने दो. न शरीर, न इसके लौकिक स्वरुप को. सब त्याग दो. संत/सन्यासी  हो जाना, फ़क़ीर हो जाना जिसके पास अपना कहने को कुछ भी नहीं हो. दूसरों की सेवा में लग जाओ. पर जब तक परिवार की ज़िम्मेदारियाँ हैं, तब तक नहीं. तब तक इसकी तैयारी हो, ट्रेनिंग हो, और फिर एक दिन समय पर सब कुछ छोड़ दो.
मैंने सुना है कि संतों, सन्यासियों पर प्रारब्ध लागू नहीं होता। अब यह तो संन्यास ही है, जो बुद्ध और महावीर ने लिया था.
क्या मैं यह चाहता हूँ, क्या यह मुझ से हो पायेगा? मुझे पता नहीं पर अभी काफी समय है. मैं क्लैरिटी  ढूंढ रहा हूँ , ढूंढता रहूँगा. 

Sunday, May 26, 2019

बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा ?

कॉर्पोरेट के ल्युटियन्स लीब्रण्डू आपको बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काफी मिलेंगे. यहां दो तरह के लोग हैं! एक तो वे जो कबीले के वासी हैं. मंगलौर ग्रुप, मलयाली ग्रुप, बंगाली ग्रुप, इत्यादि. ये काफी संगठित तरीके से काम करते हैं. इनके अपने कायदे हैं और टेरीटोरियल भी हैं ये. दुसरे को अपने ग्रुप में शामिल नहीं करते. बंगाली और मलयाली मैनेजमेंट कॉलेजेस के प्लेसमेंट टीम में भी खूब मिलेंगे. इनके शौक और आदर्श भी काफी सामान हैं. दुसरे वे जो प्रीमियर एजुकेशन ले कर आते हैं. यह कोई हेट स्पीच नहीं है, ये आइना दिखने की कोशिश है वहाँ जहां हम ऑस्ट्रिच की तरह सैंड में सर -गर्दन घुसेड़ चुके हैं. जब तक अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता. सभी लोग एक जैसे नहीं होते. सच बोलने की ज़रुरत है. यह रिस्क कौन लेगा? बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा ? एचआर में बैंगलोर में आपको ये काफी मिलेंगे. ओवर कॉन्फिडेंस, अंग्रेजी और लिबरल, साथ साथ गज़ब के फट्टू , बेहद स्वर्थी।  बंगालियों की सारी  हेकड़ी बंगाल तक ही सीमित है, और फिर जेएनयू में. अन्य जगहों में ये अपनी औकात जानते हैं....चिक-चिक नहीं करते. इन ग्रुप्स जिनकी मैंने चर्चा ऊपर की है ने अब यह कबीले वाली बिमारी तमिलों, कन्नड़ ग्रुप में भी फैला दी है. सब से खुल कर अगर कोई जाति वाद करता दिखे गए तो ये हैं  तेलुगु बंधु . इनका तो हैकिंग  लेवल तक का जुगाड़ रहता है. क्वेश्चन पेपर लीक, इंटरव्यू फिक्स्ड, भाई मैं यह इस लिए लिख रहा हूँ क्योंकि मैंने यह एचआर में रह कर देखा है. मैंने लिंकेडीन पर जब कंपनी के अंदर टीम की कैरेक्टरिस्टिक देखी तो पता लगा की कई कम्पनियाँ ऐसे नियुक्ति करती है, जैसे नौकरी डॉट कॉम से नहीं, बल्कि बंगाली, मलयाली, तमिल, तेलुगु मैट्रिमोनियल से बन्दे उठा रही हों. मेरा रिसर्च तो यह बताता है कि आप अगर जॉब ढूंढ़ रहे हैं तो फिर आप चेक करें कौन की कंपनी, उसके अंदर कौन सी टीम में आपको आपके बिरादरी के लोग ज्यादा दीखते हैं, आप उनसे संपर्क करें और भाईचारा के  रास्ते अपनी मजिल पाएं.
सब से ज्यादा गवर्नेंस, एथिक्स की बात यहीं होती है पर सबसे ज्यादा इनकी भद यहीं पिटती है. गन्दा मज़ाक है पर सच है. टीम की रिक्रूटमेंट ऐसे हो रही है जैसे आप इनकी दुल्हन या दूल्हा ढूढ़ रहे हैं... जनम जनम का साथ है,, चुनने दो इनको अपनी मर्ज़ी का.सारी गवर्नेंस चूल्हे में डाल दी है इस व्यवस्था ने. मेरे पिछले कंपनी का एक सीनियर मैनेजर था, उसका मैनेजर कनाडा में , वह भी मलयाली, अब इस इंडिया वाले मैनेजर तो अपने टीम में एक मैनेजर बहाल करना है. बाँदा चार्टर्ड अकाउंटेंट चाहिए, पर इसे मलयाली ही लेना है, दो महीने तक सब को रिजेक्ट करता रहा फिर अपने पुराने मलयाली सहकर्मी को रेफेर करता है,,उसे हायर कर लेता है...बिलकुल एवरेज , नॉन प्रोफेशनल बंदा हायर हो गया.  फिर वेंडर चाहिए, वह भी मलयाली, लीगल एडवाइजर चाहिए, वह भी मलयाली. गवर्नेंस ढकोसला है.
हराम की तनख़्वाह  लेने वाले सोशलाइट रीजनल ऑफिस में सिंगापुर में बैठते हैं. अंग्रेजी नाम है तो आप फ्रांस में कॉर्पोरेट ऑफिस में एचआर में काम करने के लिए भी बुला लिए जाओगे. आप जितने अधर्मी और चाटने में निपुण , आप उतने ऊँचे बढ़ते जाओगे.
मेरे सामने कॉर्पोरेट में ऐसे कई दोगले लोग हैं जो सारी कॉर्पोरेट की मर्यादा की धज्जियाँ उड़ा  चुके हैं, और वे एक लम्बी ज़िन्दगी वहाँ जी रहे हैं.
आपके  अंदर अगर सही खून हैं जो मर्यादित है, उबाल लेता है, आँखों में पानी है, अपने कुल का सम्मान है तो बात मान लीजिए आप इस गटर में नहीं जी सकते.
मैं अभी एक शादी में अपने कुछ बेहद पुराने सहकर्मियों से मिला, वे सभी पिछली १२-१४ वर्षों से उसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में, उसकी लाश नोच रहे हैं, जहां से उन्हें कई बार निकालने की कोशिश हुई पर वे बचते रहे, उनके बॉस उन्हें बचाते रहे,  क्यों?  क्योंकि ये इतने मरे लोग हैं जो इनके आगे सर भी नहीं उठा सकते, नौकरों की तरह सब सुनते हैं, रोज़ ज़लील होते हैं, पर  चूं तक नहीं करते. ऐसे हराम के ग़ुलाम कहाँ मिलेंगे? उन सहकर्मियों ने जब शादी में मुझे देखा तो कलेजा उनके मुँह आ गया. उन्हें मालूम हैं कि मैं उनकी इस गन्दी दशा को और उनके हराम की सैलरी को जानता हूँ. उनके चेहरे मुझे लाश की तरह लग रहे थे. उनके रोम-रोम से शदियों की ग़ुलामी की झलक दिख रही थी. सुसज्जित कुल वधुओं के वेश में ये वेश्याएँ ! क्षमा कीजियेगा, सच इतना ही कड़वा होता है. मैं यह बात हर्ष से नहीं, बल्कि दर्द से बता रहा हूँ, की आज मोटी सैलरी और स्टेबल नौकरी के पीछे घिन आने वाली आत्मा का समर्पण हैं. माले मुफ्त, दिले बेरहम, इन्हे इस नर्क से निकलने भी नहीं देता. खुद पर ये शर्मिदा हैं, पर फिर भी ज़िंदा हैं. ईश्वर इनके मुक्त करो!

Saturday, May 11, 2019

जब कुँए में ही भांग पड़ी हो

हिंदी में  एक कहावत है; जब कुँए में ही भांग पड़ी हो ! भारतेंदु ने कहा था ; आवहु सब मिल रोवहु भाई , हा हा , भारत दुर्दशा देखि नहीं जाई! आज मुझे HR के बारे में यही कहने में कोई संकोच नहीं है.
किसी ने सही कहा है ; ";ज़िन्दगी लम्बी नहीं, बड़ी होनी चाहिए ! ". पद्म श्री चाहे आप चंदा कोच्चर को दें या फिर जे के सिन्हा को, बात तभी बनती है जब आप दूसरों की ज़िन्दगी बदल देते हैं!
आपने यह कहावत सुनी होगी; 'चार आने की मुर्गी, बारह आने का मसाला! ', या फिर यह तो वही हुआ कि ;'खाया पिया कुछ नहीं, गिलास तोड़ा , बारह आना. ' एक्सपायरी डेट पर कर चुकी बुड्ढी HR की महिलायेँ अब Catalyst Inc जैसी संस्थाओं से डाइवर्सिटी और इन्क्लूसन का अवार्ड लेने न्यू यार्क चली जाती हैं. माले मुफ्त दिले बेरहम।
लगभग २० साल पहले डेव उलरिच ने एक क़िताब  लिखी थी;
जब मोदी सरकार तय है तो फिर ७ बिलियन डॉलर का चुनाव कोई मतलब नहीं रखता, पर क्या करें, ४० चोरों को लगता है, अली बाबा से दो दो हाथ कर लें, तो हमने भी कहा, लड़ ले भाई! अगली बार नो चुनाव !

The HR Scorecard: Linking People, Strategy, and Performance! HR वालों ने भावनाओं को न समझते हुए, जुमले अपनी माँग में, चेस्ट नंबर की तरह सीने पर चिपका लिया; HR बिज़नेस पार्टनर , एम्प्लोयी चैंपियन, कैटेलिस्ट , चेंज एजेंट, इत्यादि! स्वनामधन्य मठाधीश कुकुरमुत्तों की तरह उग आये कंपनियों में. नाम बड़े और दर्शन छोटे! एक अमरीकी फार्मा कंपनी है; alcon ! यह novartis की कंपनी है. alcon को HR बिज़नेस पार्टनर चाहिए. लिंकेडीन पर alcon ने 

मिर्ज़ा ग़ालिब  का एक शेर अर्ज़ है: "अगर अपना कहा तुम, आप समझे तो क्या समझे मज़ा कहने का जब है, एक कहे और दूसरा समझे ज़बान ए मीर समझे और कलाम ए मिर्ज़ा समझे मगर इनका कहा यह आप समझें, या खुदा समझे"

यह जान लेना ज़रूरी है की किसी को लोकप्रिय क्यों होना है, उसके लोक्रपिया होने का क्या मतलब है और वो किनके लोकप्रिय होना चाहते हैं? 
दूसरा सवाल हम अपने आप से कर सकते हैं; क्या आप अभी लोकप्रिय नहीं  हैं? अगर आपको काम ही लोग पसंद करते हों, तो यह  जाँच करना अच्छा रहेगा, की किन कारणों से वे आपको पसंद करते हैं. क्या आपके लोकप्रिय होने के पीछे कपि उद्देश्य छिपा है? अगर हाँ तो क्या आप इसे ज़ाहिर करना चाहते हैं या नहीं? 
मेरा मानना है लोकप्रिय बनना आपके विचारों और व्यक्तित्व का लोगों से एका होने से है. बात आपकी संवेदना और लोगों की संवेदनाओं का सामंजस्य होने से है. आपकी वाणी भी  विचार और संवेदनाओं का सही अभिव्यक्ति करती हो तो बात बनती है. ध्यान रहे , आप संवाद करते हों न की सिर्फ प्रवचन. आपका मकसद लोगों को समझना भी हो न की सिर्फ समझाना या फिर उनका नेतृत्व करने मात्र को विवश होना. 
आपको ओरिजिनल होना होगा, न कि किसी की कॉपी ! लोकप्रिय होना कोई सफल कमाऊ फिल्म बनाना नहीं है, यह कमाई इसका आउटकम हो तो ठीक है. 
मेरी समझ में लोकप्रिय होने का कोई सेट फार्मूला नहीं है. यह एक लम्बी यात्रा है, जिसमे कई पड़ाव हैं, कई झटके भी हैं. घोर निराशा और अवसाद भी. अगर आप एक वर्ग के लोकप्रिय हैं, तो एक दूसरा वर्ग आपकी खिलाफत के लिया खड़ा हो जाएगा, आप तीक्ष्ण आरोप-आलोचना, प्रत्यारोप के दौर से भी गुज़रेंगे. अब संतुलन, शब्दों का, विचारों का, संवेदनाओं का  भी आप स्वाद चखेंगे. कुल मिलाकर आप पॉपुलर होंगे पर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि यह सिर्फ सुहाना सफर है. 
दिल से आप अपने काम को करते रहिये, कोई PR एजेंसी रखने की ज़रूरत नहीं. आपके फैन आपके अपने अनुभवों से फॉलो करते रहेंगे. आप उन्हें निरंतर जोड़े रखें.  

Monday, April 8, 2019

याद आ गये सुशांत !

अमेज़न प्राइम वीडियोस का शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ! कल-परसों ही दो फ़िल्में देख ली।  "मित्रों " और "शुद्ध देशी रोमांस ". मिलनिएल्स के लिए और उनके समझ, सोच और ठरक पर बनी हैं ये फ़िल्में ! भाई ठरक दो प्रकार के होते हैं, जैसा कि सद्गुरु ने कहा है; एक जो आपको शरीर के निचले हिस्से की तरफ ले जाएगा और दूसरा ऊपर. बात समझ में आ गयी तो आपका ठरक अभी सही जा रहा है. मित्रों का एक डायलॉग ; "दुनिया में तीन तरह के लोग होते हैं; एक जो नौकरी करते हैं, दूसरे जो बिज़नेस करते हैं और तीसरे, जो कुछ नहीं करते। "
पर किसी शायर ने कहा है; "जो कुछ नहीं करते, वो अक्सर कमाल करते हैं"! अगर आप भी मेरी तरह कुछ नहीं करते तो फिर आप भी कमाल कर रहे हैं. गीता में श्रीकृष्ण ने कहा हैं; "जन्म, जरा, रोग और मृत्यु ये ४ शोक हैं! "
कुछ बच्चों के जन्म लेने से उनके माता पिता दबाव में आ जाते हैं तो कुछ के बड़े होने पर! मित्रों का हीरो एक बड़ा प्यारा सा सच्चा सा बच्चा है. कुछ नहीं करता! ऐसा उसके पिता सोचते हैं. माता और दादी (गुजराती में बा) के मत उनके पिता से बिलकुल भिन्न हैं. लड़का इंजीनियर है, दो दोस्त हैं, टपरी पर चाय पीता है, लड़कियाँ ताड़ता है. कभी-कभी दोस्तों के साथ दारू भी पी लेता है. पिता चाहते हैं, नौकरी कर ले. अपने पैरों पर खड़ा हो ले, पर वो है के बाकी लड़कों की तरह काम करने के लिए पैदा हुआ ही नहीं . काम भी है कि इससे जी चुराता है. पर भाई साहेब , ज़माने के तानों से तंग आकर उसने नौकरी कर ली. कॉल-सेंटर की नौकरी, बाज़ारू गर्लफ्रेंड, जो सहकर्मी भी है से इश्क़ की प्ले स्कूल के टोडलर सेशन्स की शुरुआत। सामजिक सबक, नौकरी से निकाला गया. न कभी नौकरी करने की हशरत थी , न निभाने की मजबूरी।  साहब को खाना बनाना अच्छा लगता है. एक कॉन्टिनेंटल रेस्टोरेंट में उनके एक  रैंडम कुकिंग पर शेफ की तारीफ़ और जनाब चले कुकिंग का यूट्यूब वीडियो बनाने. वैसे इनके कॉल-सेण्टर के फायरिंग का वीडियो यूट्यूब पर वायरल हो चुका था. यूट्यूब के लिए थोड़ी इंस्पिरेशन वहीँ से आयी थी. गौर करने की बात है कि आज का जनरेशन हुमिलिएशन में भी इंस्पिरेशन ढूंढ लेता है, देवदास नहीं हो जाता. करता अपने दिल की है. 

Friday, March 29, 2019

अब बस है तो ख़ामोशी , अब दर्द नहीं है सीने में

पल-पल , तिल-तिल मरता मैं. खुद पे रोता , खुद पे हँसता , गिरता और सम्हलता मैं.
सब कुर्बानियाँ व्यर्थ गयीं , सब प्रयास निरर्थक से.
हर साँस थकी है, आँखें भी नम , प्रभु, आपसे भी अब हतप्रभ हम.
गिनती नहीं मेरे साँसों की, रात कटी है, जेलों सी , अब बस है तो ख़ामोशी , अब दर्द नहीं है सीने में.
कटती-कटती रही ज़िन्दगी, घुटे दर्द हर एक क्षण में, कभी तो होगी, इस जीवन में, एक किरण उन सुबहों की. जिनको निहारता रहा गगन में, ज्यों सूखे में , सूने आकाश में, मेघ ढूंढता , कृषक मन-चिंतन में.
मृग मरीचिका ही रही जीवन जब , कुछ अर्थहीन , कुछ कपोल-कल्पना के भीषण रण में.

कहते हैं; कविता घनीभूत संवेदनाओं की उपज होती है. ऊपर की पंक्तियाँ मेरे वर्तमान के मनःस्थिति की एक गहरी उकेर है. ढल गए तो बुत , बह गए तो रेत हैं. 

Sunday, February 3, 2019

तो यह होता है इंटरव्यू (साक्षात्कार)?

तो यह होता है इंटरव्यू (साक्षात्कार)?

यह बीच का व्यू है! फिल्म की इंटरवल की तरह इंटर-व्यू ! पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त!
कर दिया आपने, प्रस्तावना, प्रतिवेदन और उल्लेख ! समझ गए आप! जी हाँ, मैं आपके रिज्यूमे या बायो डाटा की बात कर रहा हूँ.
व्यक्ति और व्यक्तितव एक ओर और दूसरी ओर उस संभावना जिसे हम जॉब कहते हैं से रु-बरु होने के मध्य का क्रम है इंटरव्यू! यहाँ आपका पहला चैलेंज है, यह "साक्षात्कर्ता "! आप पेश होते हैं, वह प्रकट होता है! प्रगट भयाला , दीन  दयाला! एक ब्लाइंड डेट की तरह , सिलसिला शुरू होता है, एक -दूसरे को इम्प्रेस करने का! सिर्फ अच्छी बातें, सुनहरे ख़याल , लम्बी फेंक , कुछ तुम लपेटो, कुछ हम लपेटें! सच, न तुम सुन सकोगे , न मुझमें इसकी ख़्वाहिश !
रहने दो, आज वक़्त नहीं है, मेरी शायरी का, अज़ीब दोस्तों की दास्तानों का, मेरी बेबसी, मजबूरियों का, उन कड़वे अहसासों का, सीने में दफन कुछ अरमानों का.
यह, इंटरव्यू है ज़नाब , आईये सिर्फ अच्छी बातें करें. क्या कहा, ज़मीर-ईमान ? वह तो दरवाज़े के बाहर छोड़ आया मैं, समेट लूँगा जाते वक़्त! उसे भी अब इस बेवफाई की आदत सी हो गयी है.
काश तुम पूछ लेते मेरे दोस्तों से, कि मैं कौन हूँ! तुम उनसे पूछते हो , जो नहीं जानते मैं कौन हूँ. वो जो जानते हैं, उसमे "मैं" नहीं हूँ! वो मेरी कीमत है, वह मेरा काम है.
इस एप्लीकेशन के फोटो में जो इंसान है, यह वही है, जिसने बचपन में ही सरोकार सीख लिया था. उसने अपनी हर स्कूल टीचर को यही कहा कि  वह उसकी फेवरेट टीचर है!
रही, इस इंटरव्यू की बात, तो यकीन मानिये, यह मेरा आज तक का सबसे अच्छा इंटरव्यू अनुभव था.
बचपन में, सुने एक बीबीसी इंटरव्यू का वह जुमला याद आ गया, चिपका देता हूँ . "यूँ तो औपचारिकता में कहते हैं, आपसे मिलकर बहुत ख़ुशी हुई, पर सच, आपसे मिलकर बहुत ख़ुशी हुई."

ये, कविता नहीं है. यह छोटी सी इंस्पिरेशन है जो मैंने लिंकेडीन पर गुरलीन बरुआह की अंग्रेजी कविता से ली है. 

नाथन की "ग्लोबल एचआर कम्युनिटी" , एचआर वालों का नॉस्कॉम?

नाथन सर का मैं बड़ा वाला फैन हूं ! डेलोइट (हिंदी में बोले तो Deloitte) को  अपनी सेवा के १९ स्वर्णिम वर्ष समर्पित करने के उपरांत अभी-अभी निवृ...