समस्त विश्व की चिंता टूल-किट में क़ैद है. षड्यंत्रों के जाल में फँसी अपनी एक एक साँस को तड़फड़ाती..
कलयुग का कुचक्र. यहां कोई ईश्वर नहीं है, यहां सिर्फ राक्षस सत्ताधीश हैं, सर्वत्र. चालबाज़, मौका परस्त, शोषक। देवों का समय तो कब का समाप्त हो चुका। . देव अब सिर्फ मंदिरों की शोभा बढ़ाते हैं, अपने भिन्न भिन्न रूपों में.
जीने की उम्मीद क्षीण होती जा रही है. यह समस्त विश्व में छाया हुआ एक अंधेरा है...
उम्मीद की नयी किरण? पता नहीं पर जब अँधेरा गहरा छाया हो तो उम्मीद की कोई किरण फूटती ही है, देर सबेर।
हर कोई अपना अस्तित्व छुपा बैठा है. जो चेहरे हम देखते हैं, वे छद्म हैं. लोग इतनी अच्छी नक़ल कैसे कर लेते हैं.. अपना सही रूप दिखाना जैसे पाप हो.. बहरूपिये। .हम सभी बहरूपिये हैं. ऐसी भय आच्छादित जीवन जीने का क्या फायदा?
समस्त विश्व की चिंता टूल-किट में क़ैद है. षड्यंत्रों के जाल में फँसी अपनी एक एक सांस को तड़फड़ाती..
पर्सनल चिंता ऐसी जैसे अस्तित्व का शंकट आ गया हो.
दूसरों के दुखः से हम अब दुखी नहीं होते, अपनी चिंता के अभिभूत हम अपने आस पास के लोगों के प्रति भी अपनी संवेदनाओं की आहूति दे बैठे हैं.
हर सुबह याद दिलाती है; कुछ भी तो नहीं बदला.. आज भी वही षंडयंत्र सहना, करना है..
एक अर्थहीन क्षद्म जीवन की परिणति होती है, अपने हितों की चिंता से शुरू और अंत तक उसके ही पाश में , मोह में उलझकर.
अब सहारे , संवेदनाएं, उम्मीदें , भरोसे, सब बिकाऊ हैं. सब उसी षड़यंत्र के हिस्से हैं..
अब हम जश्नों में नहीं, बाज़ारों में बिकते चकाचौंध में बहके बहके , कुछ डरे सहमे, कुछ सकते में से गुज़र जाते हैं, हर एक पल जो कभी अपने व्यक्तिगत आकांछाओं की प्रतिछवि से लगते थे, अब, तिलस्म से लगते है.
शायद मैं , थक गया हूँ.. उम्मीद भी कम हो गयी है.. हर पल बस बीतता सा लगता है, घिसट कर, कोई रोमांच नहीं है, इसकी कोई चाह भी नहीं, अंदर ही अंदर कुछ ढूंढ़ता सा है इंसान , शायद इस तिलस्म का एंटीडोट।
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