Friday, March 29, 2019

अब बस है तो ख़ामोशी , अब दर्द नहीं है सीने में

पल-पल , तिल-तिल मरता मैं. खुद पे रोता , खुद पे हँसता , गिरता और सम्हलता मैं.
सब कुर्बानियाँ व्यर्थ गयीं , सब प्रयास निरर्थक से.
हर साँस थकी है, आँखें भी नम , प्रभु, आपसे भी अब हतप्रभ हम.
गिनती नहीं मेरे साँसों की, रात कटी है, जेलों सी , अब बस है तो ख़ामोशी , अब दर्द नहीं है सीने में.
कटती-कटती रही ज़िन्दगी, घुटे दर्द हर एक क्षण में, कभी तो होगी, इस जीवन में, एक किरण उन सुबहों की. जिनको निहारता रहा गगन में, ज्यों सूखे में , सूने आकाश में, मेघ ढूंढता , कृषक मन-चिंतन में.
मृग मरीचिका ही रही जीवन जब , कुछ अर्थहीन , कुछ कपोल-कल्पना के भीषण रण में.

कहते हैं; कविता घनीभूत संवेदनाओं की उपज होती है. ऊपर की पंक्तियाँ मेरे वर्तमान के मनःस्थिति की एक गहरी उकेर है. ढल गए तो बुत , बह गए तो रेत हैं. 

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