Friday, December 3, 2021

डाइवर्सिटी इन्क्लूज़न, इक्वलिटी, बेलॉन्गिंगनेस एक व्यापक चर्चा है



डाइवर्सिटी इन्क्लूज़न, इक्वलिटी, बेलॉन्गिंगनेस एक व्यापक चर्चा है. उससे भी गहन आत्म-चिंतन/आत्मावलोकन   का विषय है यह. यह भी अमरीकी गुब्बारे की तरह मानस पटल छा रहा है. आज हर कंपनी में इसकी चर्चा है. एचआर में काम करने वाले हर किसी ने अपने नाम के आगे डाइवर्सिटी इन्क्लूज़न एडवोकेट लिख दिया है. 

९०% डाइवर्सिटी इन्क्लूज़न, इक्वलिटी, बेलॉन्गिंगनेस पदों पर महिलाओं का कब्ज़ा है. मुझे महिलाओं से कोई परहेज़ नहीं है पर यह कुछ कांग्रेस के वाईस प्रेजिडेंट पद जैसा नहीं है? रहेंगे तो राहुल बाबा ही ! यह पद राजनैतिक नहीं है  न ही कोई मुलम्मा। ..इसकी उत्पत्ति न तो रंगभेद या गोरों का कालों पर अत्याचार या एंटी सेमिटिस्म जैसी भयावह घटनाओं से है। ..

इसके पुरोधा न महात्मा गाँधी है, न मंडेला, न जॉर्ज फ्लॉएड ! #ब्लैकलाइवमैटर्स ! 




इसकी चर्चा समलैंगिक होने या सेक्स के लिए अपने पार्टनर के चुनाव से है. पर यहां सब आंदोलन जैसा है. गे परेड, रेनबो झंडे और अन्य प्रतीक। . 

डाइवर्सिटी और इन्क्लूज़न एक गहरी सोच है जो सामाजिक न्याय का हथियार नहीं  है. यह मात्र व्यक्ति के प्रति किसी भी प्रकार के पक्षपात का विरोधी है. भारत में सर्व धर्म समभाव युगों से स्थापित मान्यता है. वसुधैव कुटुम्बकम से आगे हमने कॉर्पोरेट में इक्वल ओप्पोर्तुनिटी एम्प्लायर का एक फॉर्मल प्रोसेस रिक्रूटमेंट प्रोसेस में अनुबंधित मिला। ..इसकी वजह अमरीकी अदालतों की फटकार और कई महंगे मुकद्दमे  रहे !

भारत में कॉर्पोरेट इसे भी हवा भरे गुब्बारे की तरह देख रहा है. इस सुन्दर अवसर को भी मार्केटिंग और अवसरवादियों की बलि चढ़ा दी गयी है. इसमें सब कुछ इलीट सा लग रहा है. जैसे कोइ अंतरिक्ष से उतरा कांसेप्ट हो. 

जब तक  सामान्य एम्प्लोयी इसे अपनी स्वीकृति नहीं देता तब तक यह कुछ लोगों की नौकरी और मोटी सैलरी पचाने मात्र का सगल रह जाएगा.

Diversity is about #different #perspectives
Simon Sinek says, different perspectives with same set of common values and goals will thrive. Check this video...


He says, he would rather hire someone who has no idea about that job and then this person brings whole new perspective..
Now, look at the recent hires into the roles of #Diversity #Inclusion#Equality#Belonging and they have experience in #DEIB and the look at the jobs on LinkedIn for #DEIB and you see them looking for a "type"..

Most JDs look like an event manager, who wears a billboard of #DEI all the time and makes every discussion not end without talking about #DEI...

Imagine, we had not had this role earlier and did we really trample upon civil rights, gay rights, ethic rights, gender rights, experience, age and backgrounds?

Remember rights are won after a battle, a long drawn battle and you think a lone #DEI trumpet and an event manager would bring such rights to the #Deprived?
Think again. I will not be surprised when one company looks for #DEI specialist, they will hire a woman, then they will look for #DEI experience and then they will look for industry match and MNC to MNC match to everything match!
#$uck you! It doesn't work that way and it will not not be successful as there is no outcry, no protests, no idols like #NelsonMandela (Apartheid, millions victimized) and Civil Rights , 25 years in jail and Civil Rights movement , emancipating millions and then Dream Comes True! but at a cost of brutal #assassination of #KingJr
Start #DEI as a collective reform...from top to policies to treating customers, employees, nature, make all places and communication and platforms #Inclusive...
#Diversity can't find place without constant and stable change through #Inclusion first...

Ditch the drama , make #DEI real!
Ref: मैंने लिंकेडीन पर एक पोस्ट लिखा है  डाइवर्सिटी , इन्क्लूसिव पर.. उसका लिंक यहां है.  बस  मैंने चिपका दिया है. ऊपर . 

लिंकडिन अब हिंदी में भी-यह नया है.


लिंकडिन अब हिंदी में भी। . यह नया है.. वैसे हमने कभी भी हिंदी को दूर नहीं जाने दिया लिंकडिन से। .कई आर्टिकल लिखे हिंदी में। .कुछ पोस्ट भी पर वह अकाउंट लिंकडिन ने बंद कर दिया। ..कम्युनिटी गाइडलाइन्स का उल्लंघन जो हुआ था। .वाज़िब है. 

वैसे यह मेरा लिंकडिन का चौथा अकाउंट है. दो मैंने मिटाये थे , एक लिंकडिन नें। . मुक़ाबला २-१ से बराबर। . अब ऐसे भी बराबर होता है. आप गणित करते रहिये। जिसकी लाठी उसकी भैंस. 

ट्विटर वाले कूल डूड बाहर , पराग भाई अंदर. सवाल सरकार और उससे पहले बोर्ड को खुश रहने का है. आप डोर्से हों या ट्राविस कलाकनिक हों , बोर्ड सब पर भारी है. अब पैसा चाहिए विवाद नहीं. वीवर्क वाले आदम न्यूमन तो याद होगा आपको .. 

मतलब साफ़ है, फाउंडर अलग मिटटी के होते हैं, और उनके बाद वाले सीईओ अलग. याद रखिये, इन सभी भारतीय सीईओ जो अमरीकी टेक और अन्य कंपनियों के सूरमा बने हैं, उनमे से किसी ने कभी कोई कंपनी नहीं खड़ी की. 

आगे की बहस आप अपने ग्रुप में कर लेना। 

हिंदी में कई कंटेंट क्रिएटर यूट्यूब वाले हैं. यूट्यूब पैसा देता है. वीडियो देखना आसान है, कौन पढ़े कंटेंट. ७०% कंटेंट वीडियो में खपत होते हैं. 

मैं हिंदी में लिखता हूँ ब्लॉगर पर और चिपकाता हूँ लिंकेडीन पर.  यह आसान है और ओरिजिनल कंटेंट अपने ब्लॉग पर सुरक्षित रहता है. 

अगर मुझे मेरे हिंदी ब्लॉग से कुछ आर्टिकल निकाल कर लिंकेडीन पर आर्टिकल चिपकाना हो तो कौन सा लेना चाहिए, आप बता सकते हैं. 

अगली आर्टिकल मैं डाइवर्सिटी , इन्क्लूसन , इक्वलिटी और बेलोगिन्ग के बारे में लिखना चाहता हूँ. 

कॉर्पोरेट का यह नया मुलम्मा है. अपने गिरेबान में झाँकने पर सभी कंपनियों को लगा जैसे वे अपने देश की सरकार की तरह अराजक हो गए है. जमीर धिक्कारने लगा उन्हें , उन्होंने आईने में सुसान फाउलर का फोटो देख लिया। .. अब उन्हें भी अपनी कंपनी गन्दी दिखने लगी. लेकिन जैसा कि कहते हैं न, "धूल कई बार चेहरे पर होती है और हम आईना साफ़ करते होते हैं. ". 

डाइवर्सिटी इन्क्लूसन के पहले आत्मा साफ़ हो, डाइवर्सिटी के उलेमा पाक हों. मंदिर का प्रांगण धुला धुला हो. 

लेकिन डाइवर्सिटी के नाम पर हम सिर्फ महिलाओं को और कुछ सतरंगी लोगों को कंपनी के सीने पर बैठा का अपना दामन पाक नहीं कर सकते. 

आप लिंकडिन पर डाइवर्सिटी एंड इन्क्लूसन हेड  टाइप करें, लोगों को सर्च करें।  ९०% आपको महिलाएं मिलेंगी इस पद पर। .. क्या चल रहा है यह सब? 

Wednesday, December 1, 2021

चमत्कार ज़रूरी है. सेटिंग भी ज़रूरी है.

 

कुछ साल पहले नौकरी.कॉम पर एक सीनियर रिक्रूइटेर का रिज्यूमे देखा था. यह रिज्यूमे था २०१२ में टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज से एम् बी ए, अरविंद (छद्म नाम) की। . इसके पहले उन्होंने एक और एम् बी ए किया था इक्फ़ाई हैदराबाद से , उसके बाद दो साल की रिक्रूइटेर की नौकरी TCS हैदराबाद में. फिर टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज से एम् बी ए, फिर माइक्रोसॉफ्ट में रिक्रूइटेर, फिर लिंकेडीन में रिक्रूइटेर और फिर एक फार्मा कंपनी में रिक्रूइटेर.. फिर ऊबर में रिक्रूटमेंट और फिर जब ऊबर से काफी सारे एच आर वाले निकाले जाने लगे तो इन्होने नौकरी.कॉम पर अपना रिज्यूमे डाल दिया. अब आप कहेंगे , प्रीमियर स्कूल , नामी कंपनियों में अनुभव और नौबत आ जाए नौकरी.कॉम पर रिज्यूमे डालने की , वह भी उस रिक्रूइटेर को जिसने लिंकेडीन की सपथ ली हो, लम्बा अनुभव लिंकेडीन में रिक्रूइटेर रहने का हो. यह सब इतना कॉमन नहीं है कि प्रीमियर बी स्कूल एम् बी ए को अच्छे अनुभव के बाद भी नौकरी. कॉम  का सहारा ढूंढना पड़े. एक समय था जब कोई प्रीमियर बी स्कूल का इंसान नौकरी.कॉम पर अपना रिज्यूमे डालना तौहीन समझता था। . चलो किश्मत अच्छी हो तो नौकरी मिलती रहती है. काफी निराशा के बाद समय रहते उन्हें ब्राउज़र स्टैक नाम की कंपनी में नौकरी मिल गयी। .. 

कहानी अरविंद के बारे में नहीं है, यह कहानी है नौकरी की तलाश की. इन्हे इनके एमबी ए के साथी ने फार्मा कंपनी में नौकरी दिलाया तो इन्होने उसे भी अपनी नयी कंपनी में नौकरी दिला कर क़र्ज़ उतार दिया। . सबको यह मौका मिलना चाहिए। .क़र्ज़ लेकर कौन मरे। . 

तो जनाब , ज़िन्दगी ३ बातों पर टिकी है; प्रारब्ध , कर्म और तीसरा और सबसे ज़रूरी "चमत्कार". यह चमत्कार ही था जो ऊबर और ब्राउज़र स्टैक के बीच हुआ अन्यथा ६० लाख में रिक्रूइटेर कौन लेता है? 

करियर में गैप हो गया तो इनकी ही जात  वाले रिक्रूइटेर इन्हे अछूत की तरह छोड़ देते हैं. 

चमत्कार ज़रूरी है. सेटिंग भी ज़रूरी है. 


मैं मिशेल हूँ !

मैं मिशेल हूँ !  आपने मेरी तैयारी तो देख ही ली है, राइडिंग बूट, हेलमेट,इत्यादि.  मैं इन्विंसिबल नहीं हूँ !  यह नील आर्मस्ट्रॉन्ग की मून लैंड...