Wednesday, November 13, 2019

किताब का नाम है; "ट्रेडिंग आर्मर विथ अ फ्लावर-राइज ऑफ़ न्यू मैस्कुलिन"

मनीष भाई ने एक जबरदस्त किताब लिखी है. किताब का नाम है; "ट्रेडिंग आर्मर विथ अ फ्लावर-राइज ऑफ़ न्यू मैस्कुलिन" . जाहिर है किताब का नाम अंग्रेजी में है तो किताब भी अंग्रेजी में ही है. और हम हैं कि इसकी 'समालोचना' लिख रहे हैं रिव्यु नहीं. हमने मास्टर्स की पढ़ाई साथ-साथ की थी सो थोड़ा सानिध्य प्राप्त हुआ इनका. इस व्यक्ति में जादू है. रितिक रोशन वाला नहीं। वह एलियन है भाई, यह इंसान अपने आप में एक पूरा रंगमंच हैं. दरअसल मनीष ने लिखी तो अपनी दीवानगी की कथा और व्यथा है जो मुकम्मल हुई है इस किताब में, परन्तु, अब यह पाठक पर है की वह इसे फिक्शन समझे या नॉन-फिक्शन. लेखक (या कवि ?) इस किस्म का कोई क्लेम नहीं करता. 


आगे बढ़ते हैं. राहत फतह अली साहब का एक गाना है, "ज़रूरी था". और ग़ज़ल की कुछ पक्तियां यूँ हैं. : 
"मिली हैं मंज़िलें फिर भी 
मुसाफिर थे मुसाफिर हैं 
तेरे दिल के निकाले हम 
कहाँ भटके कहाँ पहुंचे 
मगर भटके तो याद आया 
भटकना भी ज़रूरी था". 
कम शब्दों में अगर कहें तो इस किताब का मज़मून यह कुछ ग़ज़ल की पंक्तियाँ हैं जो ऊपर लिखी हैं. 

यह किताब एक सनातन दास्ताँ सी है जिसमे पात्र कालजयी है पर अदृश्य सा, उसकी कोई बड़ी या विस्तृत या विशेष पहचान भी नहीं है. पर इतना साफ़ है कि वह एक युवक है, पति और पिता भी, जो सामजिक संरचनाओं, व्यवस्थाओं, मान्यताओं, वैयक्तिक सम्वेदनाओं और अपनी बेचैनी का हल ढूंढता दीखता है. कहीं-कहीं एक अपराधी-बोध से ग्रस्त सा भी, वह भी खासतौर से जब वह, महज़ अपने पुरुष होने को, महिलाओं पर हो रहे वैश्विक दुराचारों का दोषी मान बैठता है. इसे आप जल्दबाज़ी में, महानता या मूढ़ता भी समझ सकते हैं. 
इस किताब को मैं कविता संग्रह के रूप में भी देखता हूँ. यहां आपका राबता  होगा अनेकों छोटी-बड़ी कविताओं से , कुछ खूबसूरत फूलों से भरे तो कुछ श्मशान से उद्विग्न कर देने वाले. पोएट मनीष  बेबाकी से अपनी बात कहता है, चाहे आप उसके पेज ७८ वाली कविता को इरोटिक या रोमांटिक कह लीजिये. मेरी राय है कि आप इस पुस्तक को सबसे पहले इस कविता से पढ़ना प्रारम्भ करें. शीर्षक है; "बटर फ्लाई टैटू ऑन योर लोअर बैक. " इसे आप चाहें तो कर्टेन रेज़र कह सकते हैं इस एकांकी जैसे कविता का. यहॉं मोनोलॉग करता हुआ कवि या बेहतर हो आप इसे कलाकार कह लें, आपसे रूबरू होता है पर वह आपसे  कोई आशना नहीं करता. कुछ एक कविताओं में दो पात्रों  के बीच संछिप्त सा संवाद होता जान पड़ता है पर यह पूरी यात्रा इस एक कलाकार के इर्द-गिर्द ही घूमती है. कोई कथानक भी नहीं है, न कोई क्रम्बद्धता, आप स्वतंत्र हैं इस पुस्तक को  कहीं से भी शुरू करने, विराम देने या ख़त्म करने के लिए. 
बाकी की कविताओं में आप डूबेंगे और पाएंगे एब्स्ट्रैक्ट संवेदनाओं में अकिञ्चित कल्पनाओं में , अनसुलझे जज़्बातों में , कुरेदते सच्चाइयों की ज़मीन तलाशते कलाकार को. 
कुछ, खुद को बेपर्दा करने की एक (ना)कामयाब कोशिश करते बेचैन कलाकार मनीष ने एक बात साफ़ कर दी है कि यह उनकी यात्रा-कथा है, आप दर्शक हैं और आप महसूस करेंगे जैसे आप कोई एकांकी नाटक देख रहे हों. काफी क्लैडेस्कोपिक सा व्यू तो कभी आप बिलकुल स्टेज पर होंगे पर अदृश्य. कारण ये सब हैं जिससे मैं इस पुस्तक तो एक एकांकी नाटक की तरह देख रहा हूँ. 
अमेज़ॉन से आज ही यह पुस्तक डिलीवर हुई और २-३ घंटे में मैं पढ़ गया. किताब छोटी है, सिर्फ १३६ पेज. आप इसे पढ़ें और मेरा मत है, आप इसे बिना ख़त्म किये नहीं छोड़ेंगे
मनीष भाई को ढेर सारी शुभकामनाएँ इस प्रथम पुस्तक के लिए. समय को छोटा भाई मिला है आज। ७ वर्षों की आपकी संचित संवेदनाओं से हमें रूबरू कराने के लिए साधुवाद. 
इस समालोचना पर आपकी प्रतिक्रिया का हमें बेसब्री से इंतज़ार रहेगा. 
सोनाली जी को प्रणाम और 'समय' को बहुत सारा प्यार.
आपका,
मृणाल 

मैं मिशेल हूँ !

मैं मिशेल हूँ !  आपने मेरी तैयारी तो देख ही ली है, राइडिंग बूट, हेलमेट,इत्यादि.  मैं इन्विंसिबल नहीं हूँ !  यह नील आर्मस्ट्रॉन्ग की मून लैंड...